भारत में भाषा – शिक्षा नीति
स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार और राज्य सरकारें राष्ट्रीय प्रगति और सुरक्षा के प्रभावी साधन के रूप में शिक्षा पर अधिकाधिक ध्यान देती रही हैं । विभिन्न आयोगों और समितियों द्वारा शैक्षिक पुनर्निर्माण हेतु प्रस्तुत सिफारिशों को जानना , भारत में भाषा शिक्षा संबंधी नीति को समझने के लिए जरूरी है । शिक्षा की राष्ट्रीय नीति 1968 में यह स्वीकार किया गया कि भारतीय भाषाओं और साहित्य का उत्साह के साथ विकास करना शैक्षिक तथा सांस्कृतिक विकास की एक अनिवार्य शर्त है । जब तक इसे पूरा नहीं किया जाएगा लोगों की सृजनात्मक शक्तियां क्रियाशील नहीं होगी, शिक्षा के स्तर में सुधार नहीं आएगा जनसाधारण तक ज्ञान नहीं पहुंचेगा और बुद्धिजीवीयो तथा जनसाधारण के बीच में खाई कम नहीं होगी, प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं में प्रादेशिक भाषाओं को पहले से ही शिक्षा के माध्यम के रूप में व्यवहारिक किया जा रहा है । इसमें यह भी कहा गया है कि माध्यमिक कक्षाओं में राज्य सरकार को त्रिभाषा सूत्र लागू करना चाहिए अर्थात माध्यमिक स्तर पर बच्चे 3 भाषाएं पढ़ेंगे ।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में भाषाओं के विकास के संबंध में 1968 की नीति को और अधिक तेजी वह सार्थकता के साथ कार्यान्वित करने के बात स्वीकार की गई हैं ।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 की समीक्षा( राम मूर्ति) समिति, 1990 की महत्वपूर्ण संस्तुतियों में से एक है – ग्रामीण छात्र उच्च शिक्षा प्राप्त करने की ओर प्रवृत्त नहीं हो पाते, इसका एक गंभीर कारण यह है कि आज भी अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व कायम है । इसलिए समय की मांग है कि शिक्षा के सभी स्तरों पर शिक्षा के माध्यम के रूप में क्षेत्रीय भाषाओं को प्रोत्साहित किया जाए ।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के अनुसार बच्चों में भाषा सीखने की जन्मजात क्षमता होती है । ज्यादातर बच्चे स्कूली शिक्षा की शुरुआत से पहले ही भाषा की जटिलताओं और नियमों को आत्मसात कर पूर्ण भाषिक क्षमता प्राप्त कर लेते हैं । कई बार जब बच्चे स्कूल आते हैं तो उनमें पहले से ही दो या तीन भाषाओं को समझने और बोलने की क्षमता होती है ।
इस पाठ्यचर्या ने त्रिभाषा सूत्र को प्रभावी रूप से लागू करने का सुझाव दिया है जिसमें आदिवासी भाषाओं सहित बच्चों की मातृभाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप में स्वीकृति देने पर जोर दिया गया है । प्रत्येक बच्चे में बहुभाषिक प्रवीणता विकसित करने के लिए भारतीय समाज के बहुभाषिक चरित्र को एक संसाधन के रूप में देखना चाहिए जिसमें अंग्रेजी में प्रवीणता भी शामिल है यह तभी मुमकिन है जब भाषा शिक्षण का पूरा शिक्षाशास्त्र मातृभाषा के उपयोग पर आधारित हो ।
द्विभाषिकता या बहुभाषिकता से निश्चित रूप से संज्ञानात्मक लाभ होते हैं । त्रिभाषा सूत्र भारत की भाषाएं की चुनौतियों और अवसरों को संबोधित करने का एक प्रयास है यह एक रणनीति है जिसके अंतर्गत कई भाषाएं सीखने के मार्ग को प्रशस्त किया है । ।
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